फिर भी

मजबूरियाँ

majbooriyan

चल रही है कुछ मजबूरियाँ,
इसलिए हर शै से बना रहा हूँ दूरियाँ,

सोचता हूँ दूर कही निकल जाऊं,
वापिस नजर न कभी इन्हें आऊं,

प्रचण्ड है, भयावह है, खतरनाक है,
रूह तक कंपा देती है ये बड़ी बेबाक है,

अंदर ही अंदर घिस रहा हूँ,
जैसे चक्की के दो पाटणो में पिस रहा हूँ,

जो हुआ करता था कभी रखवाला,
आज शैतान बनकर अरमानों को उसी ने कुचल डाला,

न-जाने कहाँ तक जायँगी ये मजबूरियाँ,
और कितना डराएंगी देकर अपनी घूरियाँ,

बर्दाश्त करूंगा जब तक बर्दाश्त करने का माद्दा है,
बहुत हो चूका अब इनसे दूर जाने का मेरा पक्का इरादा है,

चल रही है कुछ मजबूरियाँ,
इसलिए हर शै से बना रहा हूँ दूरियाँ,

जय हिन्द

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