उड़ने के लिए ‘पर’ नहीं,
पर फिर भी उड़ने की आशा रखती हूं।
लड़की हूं मैं फिर भी जीने की आशा रखती हूं,
जानती हूं, लड़ना पड़ेगा अपने लिए ही,
तो क्या हुआ सदियों से ही तो होता चला आया है,
उड़ना हो या आगे बढ़ना,
हर बात के लिए लड़ती हूं, रास्ता बनाती हूं,
क्योंकि जानती हू अभी नहीं तो कभी नहीं,
क्योंकि फिर कुछ दहलीजों समाजों और ना जाने कितनी रस्मों का हवाला,
देकर रोकेंगे मुझे,और
रोक लेगे ये मेरे जीने की आशा,
इसलिए अब नही रुकूंगी में,
क्योंकि जान गई हूं, आशा -निराशा का भेद
और जान गई हूं उड़ने का भेद
‘पंख’ फैलाने का भेद
जो अब ना उड़ी तो फिर ना उड़ पाउंगी
इसलिए अभ ना रुकूंगी में
क्योंकि जान गई आशा निराशा का भेद