बहुत दिनों के बाद ज़िन्दगी की मुश्किलों से जूझते हुये ज़िन्दगी के हर मोड़ से अनुभव लेते हुये, ज़िन्दगी पर ही प्रस्तुत है मेरी यह नई रचना ।
ज़िन्दगी इक खुली किताब होती है।
इक पल को हस्ती तो
इक पल को रोती है।
जो पढ़ ले
उसके लिए आसान होती है।
जो न पढ़ सके
उसके लिए बेईमान होती है।
हर पल ये सरेआम होती है।
ज़िन्दगी इक खुली किताब होती है।
इक पल को हस्ती तो
इक पल को रोती है।
ज़िन्दगी इक है जुआ,
देखो ध्यान से तो हर और मिलेगा
इक नई जंग का धुँआ।
गहराई होती है बहुत
जैसे हो कोई गहरा कुआँ।
नहीं देखा ऐसा इंसान
जिसने उसको छुआ।
ज़िन्दगी इक खुली किताब होती है।
इक पल को हस्ती तो
इक पल को रोती है।
हरी भरी है ज़िंदगी
पर खरी खरी है ज़िंदगी
कही खुशियों से भर रही है ज़िन्दगी।
तो कही दुखो से लड़ रही है ज़िन्दगी।
ज़िन्दगी इक खुली किताब होती है।
इक पल को हस्ती तो
इक पल को रोती है।
हितेश वर्मा, जयहिन्द