राजनीति – क्यों?

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, यह सर्वविदित है । परन्तु समाज में रहते हुए मनुष्य मात्र सामाजिक कत्र्तव्यों की पूर्ति तक स्वयं को सीमित नहीं रखता, अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुसार अपने सान्निध्य में आने वाले अन्य मनुष्यों से यथासम्भव स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने और सामाजिक वर्चस्व पर आसीन होने के लिए भी सतत् प्रयासरत रहता है ।
Rajniti in mahabharatदेखा जाये तो यह प्रवृत्ति केवल मनुष्यों तक ही सीमित नही हैं, क्योंकि प्रकृति ने हर जीव जन्तु में इस प्रवृत्ति को रोपित किया है ।  चार्ल्स डार्विन का ”योग्यतम की उत्तरजीविता का सिद्धान्त“ (थ्योरी आफ सर्वाईवल आफ द फिटेस्ट) इस परिप्रेक्ष्य में उल्लेखनीय है । पर निश्चित रूप से मनुष्य प्रजाति में यह प्रवृत्ति अपने विकसित और जटिलतम रूप में पायी जाती है क्योंकि सभ्यता के विकास के साथ मनुष्यों में परस्पर संचार और प्रतिस्पर्धा के अवसर और उपलक्ष्य भी विस्तृत और वृहद होते गये हैं ।

मेरे विचार में शब्द “राजनीति” अपने विस्तृत शब्दार्थ में इसी प्राकृतिक प्रवृत्ति के सभी आयामों को इंगित करता है । इसके लिए राजनीति की संज्ञा भी सर्वथा उपयुक्त है – क्योंकि इस प्रवृत्ति का विकरालतम रूप राजसत्ता को पाने और बनाये रखने के लिए किये जाने वाले कृत्यों में परिलक्षित होता है । वैसे तो राजतन्त्र, विशेषकर आज की प्रजातन्त्रीय व्यवस्था, राजनीति का विराटतम रणक्षेत्र है, पर राजनीति केवल सत्ता के गलियारों तक ही सीमित नहीं, जीवन के हर क्षेत्र में सर्वव्याप्त है । व्यापारिक स्थल हो या रोज़गार स्थल, सभी राजनीति की कार्यशालाएॅं हैं जहाॅ सहव्यवसायी या सहकर्मी आपसी प्रतिस्पर्धा में विजय के लिए राजनीति के नित नये प्रयोग करते रहते हैं ।

[ये भी पढ़ें : UP असेंबली में बम-विस्फोट होने से बाल-बाल बचा, CM योगी की जान को है खतरा]

सामाजिक पटल, जहाॅं कोई आर्थिक प्रतिस्पर्धा या हितों का टकराव नहीं होता, वहाॅं भी राजनीति सतत कार्यशील रहती है – क्योंकि आर्थिक या अन्य कोई भौेतिक लाभ या हानि ना भी हो, अपनी श्रेष्ठता या दूसरे की कनिष्ठता सिद्ध होने से दम्भ और महत्वाकांक्षाओं की तृप्ति की सुखद अनुभूति होती ही है ! आसपड़ोस में कोई परिवार अन्य परिवारों से श्रेष्ठ माना जाता है, यह श्रेष्ठता कभी आर्थिक, कभी शैेक्षिक परिपाटी पर या फिर कभी आडम्बर से थोपी जाती है । यदि पारिवार में ऐसा वातावरण हो कि नयी नवेली बहू को आगमन के साथ सास की या जेठानी की प्रमुखता स्वीकार करनी हो तो ऐसी परिस्थिति में भी दोनों ओर वर्चस्व खोने और पाने का पारिवारिक स्तर का शीतयुद्ध चलता रहता है । बहू अपना वर्चस्व जमाने व सास-जेठानी अपना वर्चस्व खोने के भय से ग्रसित रहती हैं । यह भी एक सूक्ष्म स्तर की राजनीति ही है।

इतिहास के पृष्ठ तो राजनीति के उदाहरणों से भरपूर हैं ही । त्रेता युग में, जब नैतिकता के मूल्य अत्यन्त सुदृढ़ थे, मन्थरा की राजनीति ने कैकेयी की बुद्धि भ्रष्ट कर भगवान श्रीराम को वनवास भिजवा दिया । विभीषण की राजनीति ने लंकापति का अन्त सुनिश्चित किया । द्वापर युग में जहाॅं शकुनि मामा की राजनीति ने लाक्षाग्रह, द्यूत क्रीड़ा और अन्ततोगत्वा महाभारत की सेज सजायी, उस महासंग्राम में समय समय पर भगवान श्रीकृष्ण की राजनीति सारे सेनापतियों और योद्धाओ के यु़द्धकौशल से भी अधिक प्रभावी और निर्णायक सिद्ध हुई । इतिहास की पुस्तकों में राजनीति की ऐसी उपलब्ध्यिों के अनगिनत उदाहरण प्रत्येक सभ्यता और काल में भरे पड़े हैं जो इतिहास के अध्ययन को रोचक बनाते हैं ।

[ये भी पढ़ें : विचारो की जंजीरो में जकड़ी अवधारणाएं]

परन्तु यह आश्चर्यजनक है कि मानवजीवन के इतने महत्वपूर्ण पहलू पर, जिसका प्रतिदिन प्रत्येक मनुष्य सदुपयोग या दुरूपयोग करता है, ना तो कोई प्राथमिक परिचय दिया जाता है, ना ही इसकी गूढ़ताओं व जटिलताओं के सम्बन्ध में कोई औपचारिक या अनौपचारिक शिक्षा या प्रशिक्षण दिया जाता है । जबकि आज के इस आधुनिक युग में हर विषय पर पुस्तकें और औपचारिक शिक्षा या प्रशिक्षण उपलब्ध है । यद्यपि राजनीति शास्त्र एक सुस्थापित विषय है, पर उसमें विभिन्न प्रकार के राजकीय संगठनों का अध्ययन किया जाता है न कि राजनीति के गुरों का । आज तक मैंने विशु़द्ध राजनीति पर लिखने वाले किसी लेखक का नाम नहीं सुना (कौटिल्य/चाणक्य और इटालियन विचारक निकोलो मैकियावेली को छोड़कर) ।

स्पष्ट है कि सभ्यता के विकास की जटिलताओं के साथ इस विषय पर मनुष्य के स्वविवेक, स्वभाव व सहजबोध का भी विकास हुआ है जिसे प्रत्येक मनुष्य नित्यप्रति अपनी परिस्थितियों में क्रियान्वित करता हैे । यूनानी विचारक अरस्तु (एरिस्टाॅटल) ने ठीक ही कहा है कि मनुष्य स्वभाव से ही राजनीतिक पशु है ।पर राजनीति का ध्येय यदि वर्चस्व स्थापित करना ही है तो प्रश्न यह उठता है कि सफल राजनीतिज्ञ भी सन्तुष्ट या सुखी क्यों नहीं रह पाते ? (यहाॅं पर राजनीतिज्ञ से मेरा तात्पर्य राजनीति के बल पर किसी भी क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने वाले व्यक्तियों से है) । मेरे विचार में ऐसा इसलिए है कि वर्चस्व स्थापित करने पर राजनीति की आवश्यकता समाप्त नहीं हो जाती बल्कि उसे बनाये रखने के लिए और अधिक राजनीति की आवश्यकता होती है और सफल राजनीतिज्ञ राजनीति के इसी भंवर में डूबते चले जाते हैं । अन्ततोगत्वा उन्हें यह अनुभूति होती है कि उन्होंने अपना जीवन एक ऐसी अन्तहीन प्रतिस्पर्धा में बिता दिया जिसमें लक्ष्य पर पहुॅंचकर भी विजय का आनन्द क्षणिक ही था ।

दुर्भाग्यवश इस बढ़ती के युग में जब सभी समस्याएॅं भी ब़ढ़ती ही जा रही हैं, चाहे जनसंख्या हो या प्रदूषण, अपराध, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, इत्यादि इत्यादि, राजनीति के मूल्यों में भी पतन बढ़ता जा जा रहा हैसाम-दाम-दण्ड-भेद के अनियन्त्रित और अंधाधुॅंध प्रयोग ने राजनीति शब्द को ही कलंकित सा कर दिया है । आज के परिवेश में राजनीति जिस चोले में खड़ी है उसे हेय दृष्टि से देखा जाने लगा है । यदि किसी को कहा जाये कि बहुत राजनीति करता है, तो ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे अपशब्द कहे गये हों ।

राजनीति की यह दूषित मनोवृत्ति उसी अंतःस्थल पर अंकुरित होती है जहाॅं वर्चस्व की लालसा होती है जो सभी में है । यह लालसा अन्य आकांक्षाओं या इच्छाओं की तरह इतनी दुर्बल नहीं होती कि पूर्ण ना हो तो टूटे स्वप्नों की तरह बिसरा दी जाये । राजनीति की प्रचण्ड धूप में यह लालसा तप कर स्वार्थ के चरमोत्कर्ष पर पहुॅंच जाती है । एैसे में अच्छे बुरे का, पाप पुण्य का, भेद भुला दिया जाता है, नैतिक मूल्यों की बली चढ़ा दी जाती है । स्वार्थ का मार्ग नैतिकता की सीमाएॅं तोड़ आगे बढ़ता है ।

निश्चित रूप से आकाॅंक्षाएॅं और महत्वाकाॅंक्षाएॅं रखना भी अत्यावश्यक है क्योंकि ये जीवन को एक लक्ष्य देती है जिनके सहारे जीवन बीत जाता है । जीवन व्यतीत करना कठिन हो जाये यदि जीवन में आकाॅंक्षाएॅं न हों । पर उन आकाॅंक्षाओं को पूरा करने के लिए राह में कदमों तले दूसरों के स्वप्नों को नष्ट किया जाये, तो अन्तिम समय में उसकी ग्लानि तो अवश्य होगी ही । निश्चय ही ऐसी राजनीतिक विजय से तो हार भली !

[ये भी पढ़ें : परिवार की कर्णधार – नारी]

इस सन्दर्भ में सिकन्दर महान का उदाहरण उल्लेखनीय हैे जिसने इतने विशाल भूखण्ड पर वर्चस्व स्थापित किया और विश्वविजेता के नाम से अमर हो गया । विजयश्री के एक स्वप्न के लिए उसने लाखों स्वपनों की लाशें बिछा दीं पर अपने अन्तिम समय में वही सिकन्दर अपनी ही उपलब्धि से असन्तुष्ट, अन्तिम प्रार्थना करता रहा – हे ईश्वर ! अगले जन्म में मैं फिर से सिकन्दर नहीं बनना चाहता ! एक फ़कीर के रूप में जन्म लूॅं, यही मेरी इच्छा है ! अंतिम समय में उसने यही सोचा होगा “ज़िंदगी की तलाश में हम मौत के कितने पास आ गए ……” !

सिकन्दर ने मृत्युशैया पर कुछ अन्तिम इच्छाएॅं जतायीं जो अत्यन्त प्रेरक है । उसने इच्छा प्रकट की कि जब उसकी अर्थी उठायी जाये तो उसके हाथ हवा में झूलते रहें जिससे जनता देखे कि खाली हाथ आना है और खाली हाथ ही जाना है, उसके खजाने को रास्ते में बिखरा दिया जाये जो यह शिक्षा दे कि सांसारिक धन जग में पीछे ही छूट जाता है । इस तरह सिकन्दर महान जिसने युद्ध में कभी हार नहीं देखी थी, इस नश्वर जगत के मायामोह में पूरी तरह डूबा रहा था, पश्चाताप कर और वास्तविकता को समझ कर अन्तिम समय में डूब कर भी उबर गया ।
जीत हार के इस यु़द्ध में अन्ततोगत्वा कुछ प्रश्न ही पताका फहराते हैं – क्या जीत सम्पूर्ण है ?
क्या हार या जीत अपने आप में अनन्त है ??
अनन्त तो सम्भवतः मृत्यु भी नहीं – आत्मा की शान्ति के पार तो अनन्त अथाह खारा सागर है, कितना भी पियें, अतृप्त रह जायेंगे !!

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.