कांग्रेस, सपा, इनेलो, राजद आदि राजनैतिक पार्टीयों के समर्थक इसी श्रेणी से सम्बंध रखते हैं । इन पार्टियों से जुड़े ज्यादातर लोग सरकारी नौकरी या राज में साझ की लालचवश शामिल हुए थे । ये गले में पार्टी का पट्टा डाल बैठते हैं, जो अपने मालिक के विरुद्ध बोलना तो दूर आलोचना भी सहन ना कर सकते हैं । इन्हें एक मन्दबुद्धि नेता की दासता भी बिना शर्त स्वीकार है बशर्ते इनके सगे सम्बन्धी सरकारी नौकरी और टेंडर हासिल कर पाएं । आप कभी किसी कोंग्रेसी को कांग्रेस के खिलाफ ना पाएंगे, हमेशा मालिक की सेवा को तत्पर।
बीजेपी के साथ कहानी थोड़ी अलग है। इंटरनेट और केबल टेलीविजन के बाद आई सूचना क्रांति ने राष्ट्रवादियों को सक्रिय करने में बड़ी भूमिका निभाई थी । जिनके पास मुस्लिम तुष्टिकरण और डायनेस्टी पॉलिटिक्स की झंडाबरदार कांग्रेस, और बीजेपी का चुनाव करने का प्रश्न आया तो ज्यादातर भाजपा की तरफ झुक गए । इन लोगों को सरकारी ठेके या नौकरी का लोभ ना था अपितु देश की अखंडता और प्रगति प्राथमिक थी । बीजेपी के नेतागण इस आम जनमानस को उसी श्रेणी का सोच रहे थे जो दूसरी पार्टियों के समर्थकों की है।
सुषमा स्वराज के प्रकरण के बाद भी बीजेपी की आंखें खुल जायें तो बेहतर है । ये राष्ट्रवादी किसी के ना हैं, राष्ट्र के सिवा । तुम्हारे साथ हुए क्योंकि तुमने राष्ट्र की बात की । तुम राष्ट्र की बात ना करोगे, ये तुम्हारी बात ना पूछेंगे । सुषमा स्वराज हो या कोई मोदी, योगी; देश के विरुद्ध ये किसी के ना सुनेंगे।
ये आम लोग पार्टी कार्यकर्ता ना हैं, पक्के नेशनल सोशलिस्ट हैं ।