विवाह, शादी और भी होंगे कई नाम इस बंधन के, जिसे कहने को परिवार बनाने की पहली सीढी माना जाता है,पर कभी कभी यह सीढ़ी कुछ ऐसे ख्वाहिशों को खत्म करके बांधी जाती है कि कुछ अरसे बाद एहसासा होने लगता है कि जिस बंधन को परिवार वालों ने गाजे बाजे के साथ संजोने के लिए दिया वह वाकई में उस लड़की के अरमानों को बंधने के लिए काफी हो रहा है।
आज भी कहने को तो भारत में औरतों को पहले के मुकाबले काफी सम्मानजनक स्थितिया देखने को मिल रही है पर फिर भारत के कुछ प्रांत आज भी ऐसे है जहां इस मान्यता के लिए लड़की की इच्छा का होना ना होना कोई माइने नहीं ऱखती है बस माइने रखती है परिवार की खुशी या फिर पति की खपशी, जिसे वह पहली बार शादी के बाद जानेगी। क्योंकि जिनको वह बचपन से जानती आई अन्होने तो उसके दिल को कभी समझने की कोशिश ही नहीं की।
आजकल यह बाते आए दिन देखने को मिल जाती है। हाल ही मेने अजय देवगन के प्रोडक्शन के तले फिल्म पार्चड देखी, जिसमें स्त्री का चित्रण ,जिस प्रकार दिखाया है वह आपको हर जगह देखने को मिलेगा। यह फिल्म राजस्थान की मिट्टी की भले ही हो पर कही न कही यह औरत की बरसों से चली आ रही मनः स्थिति को अच्छी तरह से ब्यान कर रही है । इसमें तीन किरदार है तीनों अलग अलग, तीनों ही अपने मन के भावों से लड़ रही है और जीतना चाहती है और जैसा की भारतीय फिल्मों में अक्सर देखा गया है कि बी हैप्पी ऑलवेस हैप्पी पर क्या वाक्ई में आज की औरत खुश है।
भले वह अपने चेहरे के भावों को समेंटे हुए अपनी लोगों की बातों को अनसुना कर अपनी मंजिल पर पहुचने का दम रखती है पर जब वह यह मंजिल पा लेती है तो उशमें वह खुशी नहीं दिखती क्योंकि जिस खुशी के लिए उसे अपनों के साथ ही उसे जरुरत थी. उसे तो उन्होंने काफी पहले ही जिटक दिया पर फिर भी वह खुश होती है ताकि अपनी आने वाली जनरेशन से वादा करती है, जो महसूस करो उसे समझों और जो करने की इच्छा है उसे करो।