फिर भी

वक़्त के धागों में लिपटी ये देखो एक दीवारी है

waqt ke dhage me lipti ye dekho ek deewar hai

वक़्त के धागों में लिपटी
ये देखो एक दीवारी है,
जो धागे नस नस बसे से हैं
ये देखो एक दीवारी है.

जो अंत गगन की लीला है
वो लाल रंग में खिली सी है,
पर ये धागे और दीवारें
बस कुछ खाली में मिली सी है.

ये लिपटी चिपटी हुई है देखो
बांधे सिमटे मेरे सच को
खुला फिर सा मेरा दामन
ये बंद बंद आँगन में देखो,
वक़्त के धागों में लिपटी
ये देखो एक दीवारी है,

हर रूप में बंध ही जाता है
ये काट काट रह जाता है,
ये बारीख सी सूरत में
गायब होके मिल जाता है.
ये देख सलीके से मुझको
हर बार ठग सा जाता है
मैं घूम घूम थक जाता हु
ये फिर मुजमे बस जाता है

ये मलमल के धागे हैं
या माझे से कातिल हैं
मैं निकालूं नस से इनको तो
ये हर ढंग से मिल जाते है
तो कोमल हो या कांटा
ये ज़ंज़ीर सी लगती है
बस देखूं जब भी इनको
ये रोती दुल्हन लगती है

वक़्त के धागों में लिपटी
ये देखो एक दीवारी है

विशेष:- ये पोस्ट इंटर्न पियूष पांडेय ने शेयर की है जिन्होंने Phirbhi.in पर “फिरभी लिख लो प्रतियोगिता” में हिस्सा लिया है, अगर आपके पास भी कोई स्टोरी है. तो इस मेल आईडी पर भेजे: phirbhistory@gmail.com

Exit mobile version